Wednesday, January 16, 2008

कदम-कदम पर ज़िंदगी

कदम-कदम पर ज़िंदगी, दर्द रही है झेल
ज्यों सुरंग के बीच से, गुज़र रही है रेल.

कितना छोटा हो गया, अपना घर संसार
शीशे में बौना लगे, अपना ही आकार.

चिनगारी के बीज से, उगा आग का पेड़
आँखें करती ही रहीं, सपनों से मुठभेड़.

अंक गणित सी ज़िंदगी, पढ़े पहाड़ा रोज़
अपने ही धड़ पर लगे, अपना यह सिर बोझ.
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